हरि ॐ|
डिसंबर की ठंडी रात| ऋषिकेश में गुरुनिवास में स्वामी चिदानंदजी अपने स्वीय सहायक को कुछ डिक्टेशन दे रहे थे| बाहर बहुत ही जोरजोरसे हिमालय हे आनेवाली हवाएं चल रही थी| उसकी आवाज बंद दरवाजोंसे भी स्वामीजी के कमरे में आ रही थी|
अचानक रुककर स्वामीजी ने पूछा,”आपको कुछ आवाज सुनाई दे रही है?”
“जी स्वामीजी!हवा बहुत तेजीसे चल रही है|”
“नहीं.. नहीं..वह आवाज नहीं..कोई रो रहा है|”
“स्वामीजी,मैं देख के आता हूं|”
“बाहर बहुत ठंड है| यह शाल ओढ के जाओ|”, स्वामीजी ने अपनी शाल उनके कांधोपर डाली|
बाहर देख कर आने के बाद सहायकजी ने कहा, “कोई नहीं है स्वामीजी| बस हवाकी आवाज है|”
“नहीं.. नहीं…किसी के रोने की आवाज है| कोई तो मदद के लिये पुकार रहा है|”, कहना पूरा होने से पहले स्वामीजी निकल पडे| कांधेपर ना शाल थी.. ना स्वेटर.. उनके पीछे तेजीसे चल रहे सहायकजी शाल लेकर दौड रहे थे, जिनकी ओर स्वामीजी का ध्यानही नहीं था|
रास्तेपर एक म्युन्सिपाल्टी का सिमेंट का बडासा पाईप पडा था| उसके पास एक बेबस कुतिया हलके से आवाज दे रही थी| बार बार पाईप के अंदर झांक रही थी और रोने जैसी आवाज दे रही थी| अंदर से नन्हे कुत्तोंके पिल्लोंकी आवाज आ रही थी|
स्वामीजी ने देखा पाईप में कांटे थे, इसलिये एक ओर से उसमें जाना मुमकिन नहीं था| दूसरी ओर जगह नहीं थी| अंदर अटके बच्चे ठंड, भूख और मां से दूरी के कारण रो रहे थे| उनकी आवाज सहजता से सुनाई भी नहीं दे रही थी| उनकी मां के लिये अंदर कांटे दूर करके एक एक बच्चेको पकडकर बाहर निकालना नामुमकिन था|
“पाईप में जाकर पिल्लोंको बाहर निकालना चाहिये|”, स्वामीजी ने कहा|
“मैं जाता हूं स्वामीजी|”
“तुम जा पाओगे?”, स्वामीजी उनकी ओर देखके बोले| थोडा मुस्कुराके…क्यों कि वह जरा स्थूल थे|
और बिना सोचे स्वामीजी ज़मींपर रेंगकर पाईप में अंदर चले गये| मिट्टी कांटोंको दूर करके एकेक पिल्ले को उठाकर बाहर ले आये| उस कुत्ती को और पिल्लोंको गुरुनिवास ले आये| गर्म दूध पिलाकर उनके लिये गर्म बिस्तर का इंतजाम किया|
जब भी स्वामीजी टूरपर जाते थे, शिष्योंको कुत्तों की देखभाल करने के लिये कहकर जाते थे|
गीता के बारहवें अध्याय के अंतिम आठ श्लोकोंमें तीसरा गुण है… करूणा|
स्वामीजी करूणा के मूर्तीमंत प्रतीक थे|